ईश्वर ने खुश होकर,
दिया मुझको ऐसा हमसफ़र,
लुढ़क, गिर, फिसल,
जाती है वो अक्सर,
देखता रह जाता हूँ अवाक्,
मैं बेचारा माथा पीटकर।
कभी हाथ, कभी पैर,
कभी उँगलियाँ काट लेती है,
चोट इतना कि कुंगफू, जूडो,
कराटे वालों को भी मात देती है।
सामान भी उसे देखकर,
मन ही मन डरते हैं,
मानों मन ही मन,
आपस में ये कहते हैं,
कोई तो बचाओ,
ये जानलेवा नारी है,
इस बार तेरी तो,
अगली बार मेरी बारी है।
मैंने बड़े प्यार से एक दिन बोला पत्नी से,
सम्भाल के काम करो इतनी विनती है,
उसने रगड़ के बोला- सामान ही खराब हैं,
खुद ही फूटते-काटते हैं, मेरी क्या गलती है।
- लेखक : आशुतोष रंजन
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